With Meta stepping back from fact-checking on its platforms, are we witnessing the rise of ‘free speech’ or just a digital free-for-all where misinformation gets the loudest voice, and accountability is left in the dust?
मेटा ने अपने प्लेटफ़ॉर्मों पर फ़ैक्ट-चैकिंग बंद कर दी है, क्या अब हम 'स्वतंत्र अभिव्यक्ति' देख रहे हैं या यह बस एक डिजिटल तूफ़ान है, जहां गलत जानकारी को अधिक तवज्जो मिल रही है और जवाबदेही कोई होगी कि नहीं?