जब विपक्ष की आवाज़ों को अक्सर बाधक बताया जाता है, तो क्या सुखबीर सिंह बादल का विरोध हमें यह याद दिलाता है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मजबूत आलोचकों की ज़रूरत होती है, भले ही उनका अतीत पूरी तरह बेदाग़ न हो?
बीजेपी ने जे.पी. नड्डा को बदलने में एक साल से ज़्यादा की देरी क्यों की? क्या विकल्पों की कमी थी — या डर था कि कोई मज़बूत अध्यक्ष मोदी-शाह की सत्ता की धुरी को हिला देगा?
In an era where opposition voices are often labelled as disruptive. Is Sukhbir Singh Badal’s resistance a reminder that a functioning democracy still needs strong critics — even if their own past isn’t spotless?