जब ये सेवाएं उनका संवैधानिक अधिकार हैं, तो हम उनसे ये उम्मीद क्यों करते हैं कि वे याचिकाएं दाख़िल करें, अदालतों में लड़ें और कानूनी खर्च भी खुद उठाएं?